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कविता

वह एक दर्पण चाहिए

रमानाथ अवस्थी


हर दर्द झूठा लग रहा सह कर मजा आता नहीं
आँसू वही आँखें वही
कुछ है ग़लत कुछ है सही
जिसमें नया कुछ दिख सके वह एक दर्पण चाहिए

राहें पुरानी पड़ गईं आख़िर मुसाफ़िर क्या करे!
सम्भोग से संन्यास तक
आवास से आकाश तक
भटके हुए इनसान को कुछ और जीवन चाहिए!

कोई न हो जब साथ तो एकान्त को आवाज़ दें!
इस पार क्या उस पार क्या
पतवार क्या मँझधार क्या
हर प्यास को जो दे डुबा वह एक सावन चाहिए !

कुछ कर गुज़रने के लिए मौसम नहीं मन चाहिए

कैसे जिएँ कैसे मरें यह तो पुरानी बात है
जो कर सकें आओ करें
बदनामियों से क्यों डरें
जिसमें नियम-संयम न हो वह प्यार का क्षण चाहिए

 


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